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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

चलते रहो !


निरन्तर तीव्र गतिसे प्रवाहित सरिताओंका जल जीवनयुक्त होता है, इसके विपरीत जिस जलमें प्रवाह नहीं है, जो एक स्थानपर रुक गया है, वह सड़कर दुर्गन्धिमय हो उठता है। इस सड़े हुए स्थिर जलमें भी ज्यों ही प्रवाहकी गति आती है, त्यों ही इसमें नव जीवनका प्रादुर्भाव हो उठता है। गति ही जीवन है, स्थिरता मृत्युका पर्याय है।

प्रकृतिमें देखिये, अनन्त आकाशका भ्रमण करता हुआ सूर्य प्रातःसे अपना गतिमान् जीवन प्रारम्भ करता है और अपरिमित लोकोंको द्युतिमान् करता हुआ सम्पूर्ण दिन गतिशील रहकर रात्रिमें विश्राम ग्रहण करता है! उसकी इस यात्राका प्रतिपल प्रतिक्षण गतिसे परिपूर्ण रहता है। निरन्तर गतिशील रहनेके कारण ही कदाचित् उसके द्वारा विश्वके जीव-जगत्का इतना भला होता है। सूर्य भगवान्का एक दिनका विश्राम जीव-जन्तु जगत्के लिये मृत्युका संदेश बन सकता है।

प्रकृतिके जीव-जन्तु-पक्षी जगत्को देखें, तो आपको स्पष्ट ज्ञात हो जायगा कि जो जीव गतिमान् रहते हैं, वे स्वास्थ्य, सौन्दर्य और दीर्घजीवनका आनन्द प्राप्त करते हैं। निरन्तर यत्र-तत्र उड़नेवाले विभिन्न पक्षी, जंगलोंमें इधर-उधर दौड़नेवाले हिरण, गतिमान् जीवन व्यतीत करनेवाली गायें, बकरियाँ भेड़ें, घोड़े, वृक्षोंपर उछलकूदका जीवन व्यतीत करनेवाले बंदर, जलमें निरन्तर गतिशील मछलियाँ कछुवे, मगर इत्यादि बड़ा स्वस्थ जीवन व्यतीत करते हैं। इसके विपरीत आलस्यमें जड़ जीवोंकी तरह स्थिर पड़े रहनेवाले जीव पंगु, अल्पायु और अस्वस्थ रहते हैं। निष्क्रिय जीवन व्यतीत करनेवाले जीव जल्दी मृत्युको प्राप्त होते हैं। उनके अवयव शैथिल्यमें पड़े रहनेके कारण अपना कार्य यथोचित रीतिसे पूर्ण नहीं कर पाते।

प्राणिशास्त्र हमें सिखाता है कि जो अपनी शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक शक्तियोंका निरन्तर उपयोग करता है, उस गतिके कारण उनकी ये शक्तियाँ तथा निरन्तर सक्रिय रहनेवाले अवयव पुष्ट होकर सुन्दर बन जाते हैं। काम न करनेवाले अवयव सूखकर विनष्ट हो जाते हैं। निरन्तर कार्यसे हमारा शरीर पुष्ट होकर आत्माकी ऊँचाई प्राप्त करता है।

लेखकको अपनी माताजीका उदाहरण गतिमान् जीवनका जाग्रत् उदाहरण है। वे बड़े तड़के पाँच बजे गृहस्थके नाना कार्योंमें दत्तचित्त हो संलग्न हो जाती है। ठण्ड हो या गरमी, वे शौचादिसे निवृत्त होकर स्नान, ध्यान, पूजन, गीतापाठके अतिरिक्त गृहस्थके सभी कार्य ऐसे करती हैं मानो किसी मशीनके द्वारा किये जा रहे हों। भैंस दुहनेका कार्य हो या वस्त्र धोनेका, पाकशालाके कार्य हों या सीने-पिरोनेके, वे निरन्तर चलते रहते हैं। समस्त दिन कार्यसे थककर वे रात्रिमें मीठी नींद सोती हैं। उन्हें पता नहीं रहता कि कहा सो रही हैं। भोजन कम-सें-कम, वस्त्र सबसे थोड़े, किंतु कार्य सबसे अधिक। उनसे कोई उनके उत्तम स्वास्थ्यका रहस्य पूछे, तो वे उसे एक ही वाक्यमें कहेगी, 'जो फिरैगो, सो चरैगो, बँधो भूखौ मरैगौ।' अर्थात् जो चल-फिरकर गतिशील जीवन व्यतीत करेगा, उसे खुलकर भूख लगेगी, जो एक स्थानपर बँधा रहकर गतिविहीन जीवन व्यतीत करेगा, उसकी निष्क्रियता उसे मार डालेगी। इस उक्तिसे उनके स्वस्थ-जीवनका पूर्ण मर्म खिंचकर आ जाता है। ये गतिको ही जीवनका प्रधान लक्षण मानती हैं।

आधुनिक मानवके गिरे हुए स्वास्थ्य, कुरूपता, अल्पायुका प्रधान कारण स्थिर गतिविहीन जीवन है। उसे थोड़ी-थोड़ी दूरके लिये सवारी चाहिये। बस-ट्रामने उससे यात्राका आनन्द छीन लिया है, साइकिल आधुनिक मानवका शत्रु है; क्योंकि इसने आधुनिक युवकके पैर जर्जरित पंगु शक्तिविहीन कर दिये हैं। वह साइकिलका ऐसा क्रीतदास हो गया है कि उसे थोड़ा भी चलना नहीं पड़ता। पाँवोंका समुचित उपयोग न करनेके कारण उसकी जीवनशक्तिका हास्य हो गया है।

हम यह जानते हैं कि कुछ शौकीन लोग टहलने जाते हैं। बड़ी आबादियोंमें ऐसे व्यक्ति दस प्रतिशतसे अधिक नहीं हैं जो टहलनेके अभ्यस्त हैं। चाहे आप कोई व्यायाम करें अथवा नहीं, किंतु टहलनेका लोकप्रिय व्यायाम अवश्य करें। यदि नहीं तो आजसे ही साइकिलका प्रयोग छोड़कर इधर-उधर जानेके लिये पैरोंका ही प्रयोग किया करें।

'चलते रहो' का तात्पर्य विस्तृत है। इसका एक अर्थ यह भी है कि कुछ-न-कुछ कार्य करते रहो, आलस्यमें निष्किय जीवन व्यतीत न करो। एक कार्यके पश्चात् दूसरा कोई नवीन कार्य प्रारम्भ करो। मानसिक कार्यके पश्चात् शारीरिक, शारीरिक श्रमके पश्चात् मानसिक कार्य-यह क्रम रखनेसे मनुष्य निरन्तर कार्यशीलताका जीवन व्यतीत कर सकता है।

आलस्य शत्रु है, सक्रियता जीवन-जागृतिका लक्षण है। श्रम ही मनुष्यकी सर्वोत्कृष्ट पूँजी है। आलसी व्यक्ति परिवार तथा समाजका शत्रु है। वह दूसरोंके

संचित श्रमपर निर्वाह करता है। ऐसे व्यक्तिसे प्रत्येक परिवारको बचना चाहिये। परिवारोंमें जितने व्यक्ति हों, सभी सक्रिय रहें, अपना-अपना कार्य जागरूकतासे सम्पन्न करें। मुखियाका कर्त्तव्य है कि वह बच्चोंमें प्रारम्भसे ही कार्य करनेकी आदतों का विकास करे। बच्चोंमें आलस्य उनके भावी जीवनके लिये बड़ा हानिकर है।

निरन्तर कार्य करनेसे वासनाएँ नियन्त्रित रहती हैं। थक जानेसे मनुष्यका मन घृणास्पद कृत्योंसे बच जाता है। उसकी प्रवृत्तियाँ शुभ कार्योंकी ओर अधिक लगती हैं। कार्यशीलता चरित्रको चमकाकर द्युतिमान् कर देती है और स्वास्थ्यको सौन्दर्यसे परिपूर्ण कर देती है।

गतिशील जीवनका समग्र ज्ञान-विज्ञान एवं मर्म ऐतरेय ब्राह्मणके एक गीतमें बड़ी सुन्दरतासे व्यक्त किया गया है। इस गीतमें भगवान् इन्द्रने हरिश्रन्द्रके पुत्र रोहितको सक्रिय जीवन व्यतीत करनेका उपदेश इस प्रकार किया है:-

हे रोहित! श्रमसे जो नहीं थका, ऐसे पुरुषको श्री नहीं मिलती। बैठे हुए आदमीको पाप धर दबाता है। इन्द्र उसीका मित्र है, जो बराबर चलता है। इसलिये चलते रहो!

जो पुरुष चलता है, उसकी जाँघोंमें फूल फूलते है। उसकी आत्मा भूषित होकर फल प्राप्त करती है। चलनेवालेसे पाप थक कर सोये रहते हैं। इसलिये चलते रहो, चलते रहो!

बैठे हुएका सौभाग्य बैठा रहता है, खड़े होनेवालेका सौभाग्य सोता रहता है और उठकर चलनेवालेका सौभाग्य चल पड़ता है। इसलिये चलते रहो, चलते रहो!

सोनेवालेका नाम कलि है, अँगड़ाई लेनेवाला द्वापर है। उठकर खड़ा होनेवाला त्रेता है और चलनेवाला कृतयुगी होता है। इसलिये चलते रहो, चलते रहो!

चलता हुम मनुष्य ही मधु पाता है। चलता हुआ ही स्वादिष्ट फल चखता है। सूर्यका परिश्रम देखो, जो नित्य चलता हुआ कभी आलस्य नहीं करता। इसलिये चलते रहो, चलते रहो!

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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